पुराणों
के अनुसार महाराजा दक्ष भगवान ब्रह्मा जी के मानस पुत्र थे जिनकी उत्तप्त्ति
ब्रह्मा जी के दक्षिण अंगुष्ठ से हुयी थी । ब्रह्मा जी ने महाराजा दक्ष की
उत्तप्ति सृष्टि के निर्माण हेतु की थी।
महाराजा
दक्ष कश्मीर के हिमालया क्षेत्र में रहते थे।
महाराजा
दक्ष के दो पत्नियाँ थी
एक
प्रसूति
दूसरी
वीरणी
प्रसूति
से दक्ष जी महाराज को 24 व
वीरणी से 60 कन्याये
उतपन्न हुयी।
इस
तरह दक्ष की 84 पुत्रियां
थीं। इनमें 10 धर्म
को, 13 महर्षि कश्यप को,
27 चंद्रमा को, एक पितरों को, एक अग्नि को और एक भगवान् शंकर को
ब्याही गयीं। महर्षि कश्यप को विवाहित 13 कन्याओं से ही जगत के समस्त प्राणी उत्पन्न हुए। वे लोकमाताएँ
कही जाती हैं। समस्त दैत्य, गंधर्व,
अप्सराएं, पक्षी, पशु सब सृष्टि इन्हीं कन्याओं से
उत्पन्न हुई। दक्ष की ये सभी कन्याएं, देवी, यक्षिणी,
पिशाचिनी आदि कहलाईं। उक्त कन्याओं और
इनकी पुत्रियों को ही किसी न किसी रूप में पूजा जाता है।
अदिति
से आदित्य (देवता), दिति
से दैत्य, दनु से दानव, काष्ठा से अश्व आदि, अरिष्ठा से गंधर्व, सुरसा से राक्षस, इला से वृक्ष, मुनि से अप्सरागण, क्रोधवशा से सर्प, ताम्रा से श्येन-गृध्र आदि, सुरभि से गौ और महिष, सरमा से श्वापद (हिंस्त्र पशु) और तिमि
से यादोगण (जलजंतु) आदि उत्पन्न हुए।
प्रसूति
से दक्ष की 24 पुत्रियां
:- श्रद्धा, लक्ष्मी,
धृति, तुष्टि, पुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शांति, सिद्धि, कीर्ति, ख्याति, सती, सम्भूति, स्मृति, प्रीति, क्षमा, सन्नति, अनुसूया, ऊर्जा, स्वाहा और स्वधा।
पुत्रियों
के पति के नाम :- पर्वत राजा दक्ष ने अपनी 13 पुत्रियों का विवाह धर्म से किया। ये 13
पुत्रियां हैं- श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, तुष्टि, पुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शांति, सिद्धि और कीर्ति। धर्म से वीरणी की 10
कन्याओं का विवाह हुआ। मरुवती, वसु, जामी, लंबा, भानु, अरुंधती, संकल्प, महूर्त, संध्या और विश्वा।
इसके
बाद ख्याति का विवाह महर्षि भृगु से, सती का विवाह रुद्र (-भगवान् शिव) से, सम्भूति का विवाह महर्षि मरीचि से,
स्मृति का विवाह महर्षि अंगीरस से,
प्रीति का विवाह महर्षि पुलत्स्य से,
सन्नति का कृत से, अनुसूया का महर्षि अत्रि से, ऊर्जा का महर्षि वशिष्ठ से, स्वाहा का अग्नि से और स्वधा का पितृस
से हुआ।
इसमें
सती ने अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध रुद्र-भगवान् शिव से विवाह किया। माँ
पार्वती और भगवान् शंकर के दो पुत्र और एक पुत्री हैं। पुत्र-गणेश, कार्तिकेय और पुत्री वनलता।
वीरणी
से दक्ष की साठ पुत्रियां :- मरुवती, वसु, जामी,
लंबा, भानु, अरुंधती, संकल्प, महूर्त, संध्या, विश्वा, अदिति, दिति, दनु, काष्ठा, अरिष्टा, सुरसा, इला, मुनि, क्रोधवषा, तामरा, सुरभि, सरमा, तिमि, कृतिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, सुन्रिता, पुष्य, अश्लेषा, मेघा, स्वाति, चित्रा, फाल्गुनी, हस्ता, राधा, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मुला, अषाढ़, अभिजीत, श्रावण, सर्विष्ठ, सताभिषक, प्रोष्ठपदस, रेवती, अश्वयुज, भरणी, रति, स्वरूपा, भूता, स्वधा, अर्चि, दिशाना, विनीता, कद्रू, पतंगी और यामिनी।
चंद्रमा
से 27 कन्याओं का विवाह :-
कृतिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, सुन्रिता, पुष्य, अश्लेषा, मेघा, स्वाति, चित्रा, फाल्गुनी, हस्ता, राधा, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मुला, अषाढ़, अभिजीत, श्रावण, सर्विष्ठ, सताभिषक, प्रोष्ठपदस, रेवती, अश्वयुज, भरणी। इन्हें नक्षत्र कन्या भी कहा जाता
है। हालांकि अभिजीत को मिलाकर कुल 28 नक्षत्र माने गए हैं। उक्त नक्षत्रों के नाम इन कन्याओं के नाम
पर ही रखे गए हैं।
9 कन्याओं
का विवाह :- रति का कामदेव से, स्वरूपा
का भूत से, स्वधा का अंगिरा
प्रजापति से, अर्चि
और दिशाना का कृशश्वा से, विनीता,
कद्रू, पतंगी और यामिनी का तार्क्ष्य कश्यप से।
इनमें
से विनीता से गरूड़ और अरुण, कद्रू
से नाग, पतंगी से पतंग और
यामिनी से शलभ उत्पन्न हुए।
भगवान्
शंकर से विवाद करके दक्ष ने उन्हें यज्ञ में भाग नहीं दिया। पिता के यज्ञ में
रुद्र के भाग न देखकर माता सती ने योगाग्नि से शरीर छोड़ दिया। भगवान् शंकर पत्नी
के देहत्याग से रुष्ट हुए। उन्होंने वीरभद्र को भेजा। वीरभद्र ने दक्ष का मस्तक
दक्षिणाग्नि में हवन कर दिया। देवताओं की प्रार्थना पर तुष्ट होकर भगवान् शंकर ने
सद्योजात प्राणी के सिर से दक्ष को जीवन का वरदान दिया। बकरे का मस्तक तत्काल मिल
सका। तबसे प्रजापति दक्ष ‘अजमुख’
हो गए।
वीरभद्र
के रोम-कूपों से अनेक रौम्य नामक गणेश्वर प्रकट हुए थे। वे विध्वंस कार्य में लगे
हुए थे। दक्ष की आराधना से प्रसन्न होकर भगवान् शिव ने अग्नि के समान ओजस्वी रूप
में दर्शन दिये और उसकी मनोकामना जानकर यज्ञ के नष्ट-भ्रष्ट तत्त्वों को पुन: ठीक
कर दिया।
दक्ष
ने एक हज़ार आठ नामों (-शिव सहस्त्र नाम स्तोत्र) से भगवान् शिव की आराधना की और
उनकी शरण ग्रहण की। भगवान् शिव ने प्रसन्न होकर उसे एक हज़ार अश्वमेध यज्ञों,
एक सौ वाजपेय यज्ञों तथा पाशुपत् व्रत
का फल प्रदान किया।